_ एक ख़्वाब ऊंचे से एक ख्वाब लेकर, उड़ा जो एक पंछी गगन रोक ले उसको भंवर, छू न पाए वह गगन तुझको जो न मंज़िल मिली, उसे ही क्यों गगन मिले दुनियां ने जब यही किया, तू ही क्यों ऐसा न करे तुझको क्या है पड़ी किसी की, तू तो है रखवाला कुल का उड़ना चाहा सबसे ऊंचा, दिया हौसला सबने झूठा बोला बढ़ो हम साथ तुम्हारे, सुना जो मैने बिना विचारे देख हौसला उम्मीद जगी, मैं तो पूरे दम से उड़ी देख ऊंचाई पर मुझको, हुआ अचानक भ्रम उनको भूल गए वे अपनापन,दिखा उन्हें बस अपना मन पीछे से फिर वार किया,पंख मेरा बेकार किया अभी-अभी जो बने थे अपने, वो तो सारे निकले सपने उड़ी थी जिस जोश से, गिरी उसी अफ़सोस में घाव गए निशान पड़े थे, सामने झूठे इन्सान खड़े थें फिर बोले एक बुरा सपना मानो, अब उड़ने की जिद न ठानो पंख बिना कैसे उड़ पाओगी, अब न गगन को छू पाओगी मिलती है हर किसी को सीख, छोड़कर जाता जो लीक पहिए के आगे जो जाता,लीक में दबकर नष्ट हो जाता बहुत हुआ अब चुप हो जाओ,मैने कहा अब मैं बहकाओ क्यों कहते हो कर न सकूंगी,अब करो सामना न दब के रहुंगी खड़ी हुई और ध्यान किया, अवरोधों का न मन किया हिम्मत का धागा बनाकर,पंखों को...
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