✍🏻 सफेद जाल
एक भूरा-कला बीज,मिट्टी में दबकर अंकुरित हुआ
एक नन्हा पौधा बनकर बाहर आया
भूप - पानी सोखकर बड़ा हुआ,
घनी - चौड़ी पत्तियों से सज कर,
मोटे तने वाला लंबा पेड़ बना,
हंसते -मुस्कुराते ढेरों फूल लगे,
सूखकर गिरे तो सुनहरे फल आए,
हरे - पीले रंगों में बढ़ने लगे और लगातार पक कर गिर गए,
चार मौसम तक दोहराने के बाद वही चौड़ी - घनी पत्तियां,
चमकते फूल और सुनहरे फल आते रहे,
मगर इस बार फूल सूखकर गिरे पर,फल पीले नहीं हुए,
उन पर सफ़ेद कीड़ों ने जाल फैलाना शुरू किया
और फल छोटे ही रह गए,पीले होकर गिरे नहीं, तब तक सफेद ही थे,
जब तक लालचवश किसी ने उन्हें तोड़ा नहीं,
इस बार उन्हें खाया नहीं गया,फल पीला नहीं सफेद जो था,
पीले फल की लालच में सफेद कीड़ों पर पिचकारी से दवा मारी गई,
फल नीचे गिरें मगर उन्हें खाया नहीं गया,
आज भी शुरू से वही प्रक्रिया होती है मगर फल पक कर गिरते नहीं है,
उन्हे सफेदी जकड़ लेती है,जो फल को बढ़ कर, पीला होकर गिरने नहीं देती है,
अफ़सोस तो इस बात का है की वो दवा आज भी इतनी कामगर नही है कि उन फलों की सफेदी हटा सके,
जिससे वे फल पककर खाने योग्य बन सकें।
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Poet
Manvi Verma
Pen Name
Monika Manvi
Publisher
Om Tripathi
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Social Media Manager
Shourya Paroha
बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंNice poem
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