Written by anil kumar, अयोध्या उत्तरप्रदेश
एक-एक कण तिनके की
बीट वृक्ष के छिलके की
बरखा के बरसात में रह कर
आंधी और तूफान को सह कर
कैसे महल बनाती है
कैसे महल बनाती है।।
उड़ती तेज विमानों से
चूँचूँ कहती इंसानों से
कहीं उजड़ न जाए मेरा घर
इसी बात का है मुझे डर
बच्चों की याद सताती है
कैसे महल बनाती है
कैसे महल बनाती है
आया जब मौसम सावन का
चले तेज झोंके पावन का
धूल उठे बादल में भूमि से
अंधकार छा गया धूल से
कैसी यह विपदा आई
जो वृक्षों को भी हिलाती है
कैसे महल बनाती है
कैसे महल बनाती है
घर से हो गई मैं बेघर
चारों तरफ मजा फिर कहर
उजड़ गया हाय मेरा घर
उजड गया हाय मेरा घर
चूँचूँ कैसे चिल्लाती है
कैसे महल बनाती है
कैसे महल बनाती है।।
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंVery good bahut hi achhi poem hai
जवाब देंहटाएंAti sundar
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