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"जुगनुओं का झुण्ड"



तिलमिलती दोपहरी की धूप को ओझल करती हुई, दिन की घड़ी घूमती हुई शाम की बेला का समय लेकर आ गयी। हर पथिक दिन भर के श्रम के बाद वो अवश्य ही सूकून को ढूँढता हुआ घर की ओर चल पड़ा हो। पंछी भी अगर भोर में किसी दूसरे देश की ओर उड़ान भरते, साँझ के समय वो भी अपना_अपना झुण्ड बनाकर अपने निवास स्थान तक पहुँच जाते। मैं हर रोज की तरह अपना सारा काम निपटाकर आँगन में पड़ी हुई छोटी सी खाट पर बैठ जाती या फिर आसमान में लौटते हुए पंछी प्रवासियों को देखती रहती। मेरे आँगन में जितने भी पेंड़ थे, मैं उनको निहारती रहती और मन ही मन उनसे बात करने का प्रयास भी करती। बार_बार मेरा मन पुलकित हो उठता कि काश मैं प्रक्रति में समा सकती। धीरे_धीरे वही साँझ अब गहरी निशा का रूप धारण कर लेती है। "वो रात मानो जिसने खिले हुए गुलशन के समान दिन को अपनी अंधकार रूपी बाहों से घेर लिया हो"। रात्रि भोजन के बाद मैं घर की सबसे ऊपर वाले कोठे पे चढ़ जाती। वहाँ एकांत में बैठकर विचरण करती रहती। मेरे घर की दक्षिण दिशा में कुछ सेमल के पेंड़ लगे थे। वो काफी बड़े आकार के थे। "हर एक वस्तु को अंधकार में समेटती हुई रात में वो पेंड़ मानो जुगनू समूह को आमंत्रित करते हों। "मानो कह रहे हों मेरी एक_एक टेहनी को विद्युत प्रकाश की झालर की भाँति लड़ियों के रूप में प्रकाशमान कर दो। " रात्रि में वे पेंड़ काले_काले भूधर् के समान अपना रूप धारण कर लेते। दिन में उनके पत्ते पवन के वेग से पंखे के समान हवा करते। रात में पेड़ों पर वे जुगनू ऐसे छा जाते "मानो आसमान का हर एक सितारा उनकी पत्तियों पर अपना जादू बिखेर रहा हो"। " जिस प्रकार संजीवनी बूटी की पूरी पर्वत श्रृंखला मड़ी की भाँति चमक रही थी, मानो उसी का अनुकरण करते हुए वो देदीप्यमान हो रहे हों"। उनको देखकर मैं बार_बार उनकी ओर आकर्षित हो रही थी। हजारों की संख्या में उनका अपना परिचय था। "आख़िर वो जुगनुओं का झुण्ड जो था"। 


Written by Tamanna kashyap, 

Uttar pradesh, sitapur. 



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