ए जिंदगी
(मुक्तक)
ए जिंदगी तेरी कद्र पता चली आजमाने के बाद,
जलना क्या होता है तिल-तिल सुलगने के बाद।
हम तो सहरा-सहरा भटकते ही रह गए,
होश आया मुट्ठी से रेत फिसलने के बाद।
तन्हा चले तो रास्ता उदास न था,
तेरी परछाइयों का भी साथ न था।,
सिक्कों की खनक में मस्त हुआ है,
वो मेरे साथ चला मगर साथ न था।
कतरा-कतरा गिर कर रूह में उतर गया,
जिंदा था फिर लाश हुआ मजार में बदल गया।
जमीन सुलगने लगी आसमान जार-जार रोया,
मेरा रकीब मैयत से मुस्करा के गुजर गया।
बारिश ने मेरा नशेमन जला दिया,
ठंडी फुहारों ने अंतर्मन झुलसा दिया।
ए आँधियां तुम तो जरा ठहर जाओ,
गुलशन ने मेरा आशियाँ मिटा दिया।
सूरज मद्धम हो गया पता ही न चला,
शाम कब ढलने लगी पता ही न चला।
चरागे रोशन की कैसे कोई उम्मीद करे,
शमा जिंदगी बुझने लगी पता ही न चला।
थक कर बैठ गए अब चल नहीं सकते हैं,
कारवाँ बिछड़ गया अब मिल नहीं सकते हैं।
काश! इस जिंदगी की शाम अभी हो जाए,
चार काँधों के बिना मरघट जा नहीं सकते हैं।
उनसे मुलाकात की कुछ वक्त गुजर गया,
कोर का पानी छिपाने में निकल गया।
कुछ उलझन समेट कर एक तरफ रख दी,
जाने क्या कशिश थी कि शीशा चटक गया।
पंछियों ने इस मुंडेर पर आना छोड़ दिया है,
हमने भी रेत के घरोंदे बनाना छोड़ दिया है।
यादों की परछाइयाँ तुम आँगन से समेट लो,
दिल के दरवाज़े पर रंगोली सजाना छोड़ दिया है।
बिखरा हुआ मलबा हटाता चला गया।
रगड़-रगड़ कर साफ करता चला गया,
ये क्या जब दर्पण से धूल साफ की तो,
चेहरा स्वतः ही निखरता चला गया।
किवाड़ का तालमेल एक के बाद एक आता है,
आलिंगन बद्ध होकर सुरक्षा द्वार कहलाता है।
इंसान की फितरत है रौंद कर आगे बढ़ने की,
जो लाश के ढेर को भी सीढ़ियाँ बनाता है।
जंगल सारा कट गया पेड़ों को मिटा दिया,
कुल्हाड़ी का हत्था बन लोहे का साथ दिया।
लोहे की क्या औकात बिन काष्ठ कुछ करता,
लकड़ी ने गद्दारी की स्वकौम को मिटा दिया।
लकड़ी लोहे से जब यारी करती है,
लकड़ी-लकड़ी से गद्दारी करती है।
कुठारी(कुल्हाड़ी) में काष्ठ हस्ता बनकर,
अपनी जाति का सफाया करती है।
अनुबन्ध खुशी का था गम का कर लिया,
ए जिंदगी तुझे दर्द में शामिल कर लिया।
गम की परछाइयों में मशगूल हो गए,
पढ़ा ही नहीं दर्द पर हस्ताक्षर कर दिया।
नफरत को जह़न में समाने दिया,
हमने यह शीशा तोड़ दिया।
शीशे के जर्रे-जर्रे में यूँ हमको,
नफ़रत का अक्स दिखाई दिया।
ऐ जिंदगी कहाँ तक मैं तेरे पीछे भागूँ,
तू है कि मेरे साथ दौड़ना ही नहीं चाहती।
शायद मुझमें ही कुछ खामियाँ है इसलिए,
तू पीछे मुड़कर देखना ही नहीं चाहती।
तेरा प्यार भी देख लिया इकरार भी देख लिया,
मुहब्बत के प्रति तेरा समर्पण भी देख लिया।
ए संगदिल सनम तू सिर्फ स्वार्थ का पुतला है,
रिश्तों के प्रति तेरा तिरस्कार भी देख लिया।
कोई नहीं सिर्फ परछाई चल रही थी,
संग मेरे मेरी तन्हाई चल रही थी।
अँधेरे ने क्या घेरा उसने भी साथ छोड़ दिया,
दूर कहीं मेरी तमन्नाएं जल रही थी।
पूरी जिंदगी भागता रहा जिम्मेदारियों लिए,
कभी पुत्र की, पति की, पिता के लिए,
किन्तु आज औलाद ने खोखला कर दिया,
सुकून की नींद सो गया हमेशा के लिए।
सुखी इंसान दिल से खिलखिलाता है,
चेहरे का भाव भी मुस्कराता है,
अंदर से टूटा इंसान उद्गार छिपाकर,
खोखली हँसी चेहरे पर लाता है।
मैं गहरे अँधेरे में गुम हो चुका था,
उम्मीद का दीपक बुझ ही चुका था,
जुगनुओं ने चमक कर रोशनी कर दी,
मैं रोशन राहों पर फिर बढ़ चुका था।
तुझे छोड़ भी नहीं पा रहे हैं
तुझको जी भी नहीं पा रहे हैं,
जिंदगी ऐसा क्या है तुझमें कि,
कल की उम्मीद में काट रहे हैं।
अपने क्रिया-कलाप का बखान खुद क्यों,
बनना अपने मुँह मियाँ मिट्ठू खुद क्यों,
ऊँचाई का आकलन जमाना करेगा,
कितने सोपान तय किए गणना खुद क्यों।
माता-पिता के दौर में जिन्दगी को भरपूर जिया,
अपना दौर आया परिवार में मशरूफ हो गया,
इच्छाएँ मर गई धीरे-धीरे जिन्दगी कटने लगी,
बच्चों के दौर में जिन्दगी का बोझ ढोने में गया।
कहते हैं वक्त सबका हिसाब रखता है,
बनके परछाई संग-संग चलता है।
जो इंसान वक्त की जो कद्र करता है,
वही तो वक्त का शहंशाह बनता है।
इतनी जी हजूरी मत करो कि वह खुदा हो जाए,
इतना दुत्कारो भी मत करो कि फिजूल हो जाए,
वक्त-वक्त की बात है जनाब कहीं ऐसा न हो कि,
तुम काँटों में उलझ गए और वह फूल हो जाए।
इतना मत झुको कि वह खुदा हो जाए,
दुत्कारो भी मत कि फिजूल हो जाए,
उमके बजूद का अहसास जरूरी है,
अपनी अहमियत भी समझाई जाए।
21 रुपये के प्रसाद में अनुबन्ध खुशियों का किया है,
लालसा पूरी होगी तब चढ़ावे का वादा भी किया है।
मन्नत पूरी ना हुई तब पता चला मंदिर में भीड़ का,
पुजारी ने 21 रुपये में ईश्वर को मनाना बन्द किया है।
बचपन से तुझे हम जानते हैं,
काम करने के तरीके पहचानते हैं,
तेरी कर्मठता के कायल हुए हम,
दिल से तेरे जज़्बे को सलाम करते हैं।
किशोर वय में इश्क परवान चढ़ गया,
माशूका की गलियों में आवारा फिरता गया।
सिर्फ 11 चप्पलें तड़ातड़ बरसीं पिता की,
इश्क का भूत उम्र भर के लिए उतर गया।
10 रुपए की मूँगफली खरीदी मंदिर में दिए 20,
भगवान खुश हुए नहीं पुजारी देखे फिल्म रईस।
इस दुनियाँ में सिर्फ तू ही तय कर सकता है कि,
तेरे जनाजे के पीछे कितने लोग चलेंगे 4 या 40,
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Om Tripathi
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