मैंने खाली गागर को भी छलकते हुए देखा है....
इश्क़ वो रिश्ता है....
जिसे मैंने दिलो से निकल कर भी रंगों मै ढलते हुए.. देखा है....
काफी अच्छी वाकफियत हैं....
उसके खयालो से मेरी...
फिर भी ना जाने क्यो इतना गैर समझता है...
वो मुझे...
और कौन है दूसरा...
जो उन्हें छोड़ दू उसके दर पे...
मै एकलौता हु अपनी मॉ का...
कोई पूछे तो मेरे मन से.
तू है मेरे दम से.
मगर मेरी मॉ नहीं मेरे तन से.
हक़ीक़त तो ये है.
की मै हु अपनी मॉ तन से...
निगाहो ने ना तसदिक की जिसकी...
दिल उसका एहतराम कर बैठा है...
मुसलसल आंसुओं से ना हरी हो सकी जो ज़मीन..
दिल उस बंजर ज़मीन से प्यार कर बैठा है..
सौंप दो अपनी तकलीफे मुझे...
मे ना इन्हे बर्बाद करूंगा....
मे तो शायर हु साहब...
हसकर ही इनसे बात करूंगा...
काश हमें भी किसी ने ठोकर मार दी होती..
दिल टूटता..
तभी तो कमाई होती...
क़ैद ए हुनर मालूम था. उसे
वो पैसे ए सय्यद था.
वफ़ा करता भी तो कैसे करता.
हाथों मे उसके जाल था.
बड़ा सुकून मिलता है.
अपने गम से मुस्कुरा कर बात करने में.
यह नेमत भी खुदा ने शायद
हमारे ही लिए रखी थी...
Written by
Fiza Fatima
Peelibheet,(UP)
Posted by
Om Tripathi
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