तिलमिलती दोपहरी की धूप को ओझल करती हुई, दिन की घड़ी घूमती हुई शाम की बेला का समय लेकर आ गयी। हर पथिक दिन भर के श्रम के बाद वो अवश्य ही सूकून को ढूँढता हुआ घर की ओर चल पड़ा हो। पंछी भी अगर भोर में किसी दूसरे देश की ओर उड़ान भरते, साँझ के समय वो भी अपना_अपना झुण्ड बनाकर अपने निवास स्थान तक पहुँच जाते। मैं हर रोज की तरह अपना सारा काम निपटाकर आँगन में पड़ी हुई छोटी सी खाट पर बैठ जाती या फिर आसमान में लौटते हुए पंछी प्रवासियों को देखती रहती। मेरे आँगन में जितने भी पेंड़ थे, मैं उनको निहारती रहती और मन ही मन उनसे बात करने का प्रयास भी करती। बार_बार मेरा मन पुलकित हो उठता कि काश मैं प्रक्रति में समा सकती। धीरे_धीरे वही साँझ अब गहरी निशा का रूप धारण कर लेती है। "वो रात मानो जिसने खिले हुए गुलशन के समान दिन को अपनी अंधकार रूपी बाहों से घेर लिया हो"। रात्रि भोजन के बाद मैं घर की सबसे ऊपर वाले कोठे पे चढ़ जाती। वहाँ एकांत में बैठकर विचरण करती रहती। मेरे घर की दक्षिण दिशा में कुछ सेमल के पेंड़ लगे थे। वो काफी बड़े आकार के थे। "हर एक वस्तु को अंधकार में समेटती हुई रात में वो पेंड़ मा...
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